देहरादून में खालों और नालों पर हो रहे अतिक्रमण के मामलों में एक सबसे चौंकाने वाला मामला सामने आया है मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण (MDDA) के मुख्य अभियंता और उनके परिवार से जुड़ा। यह मामला तब प्रमुखता में आया जब वॉइस नेशन नामक एक समाचार मंच ने इसकी विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें आरोप लगाया गया कि मुख्य अभियंता ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए अपने बेटे और बहू की कंपनी को खाले की भूमि पर अवैध निर्माण की अनुमति दी।
खाले की ज़मीन पर अतिक्रमण कैसे हुआ?
MDDA के मास्टर प्लान में यह ज़मीन स्पष्ट रूप से नाले के रूप में दर्ज है, इसके बावजूद वहां ग्रुप हाउसिंग प्रोजेक्ट का नक्शा पास कर दिया गया। सबसे गंभीर तथ्य यह है कि यह नक्शा बिना निर्धारित शुल्क जमा किए ही प्रोविजनल रूप से स्वीकृत कर दिया गया – और वह भी उसी अधिकारी के हस्ताक्षर से जो इस भूमि के विवाद से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़ा हुआ है।
प्रशासनिक प्रतिक्रिया और कार्रवाई का अभाव
इस प्रकरण की शिकायत सीधे माननीय मुख्यमंत्री, तत्कालीन मुख्य सचिव, आवास सचिव, गढ़वाल कमिश्नर और जिलाधिकारी देहरादून को की गई थी। परंतु अफसोसजनक बात यह रही कि इतने उच्चस्तरीय अधिकारियों तक मामला पहुँचने के बावजूद कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं हुई। मुख्य अभियंता के प्रभाव और प्रशासनिक तंत्र की चुप्पी ने यह स्पष्ट कर दिया कि सिस्टम में रसूखदारों को बचाने की परंपरा अब भी जीवित है।
हाईकोर्ट की टिप्पणी और नाराज़गी
नैनीताल हाईकोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए SHO राजपुर से सीधे पूछा है कि रसूखदारों पर अब तक FIR क्यों नहीं हुई? कोर्ट का यह स्पष्ट निर्देश है कि सभी मामलों में निष्पक्षता के साथ कानून लागू होना चाहिए, फिर चाहे वह आम नागरिक हो या कोई ऊँचे ओहदे पर बैठा अधिकारी।
सिस्टम में पक्षपात का आरोप
हाईकोर्ट ने अपनी टिप्पणी में स्पष्ट रूप से कहा कि “**सिस्टम सिर्फ गरीबों पर ही कार्रवाई करता है, रसूखदारों को बचा लिया जाता है।**” यह बात तब और अधिक प्रासंगिक हो जाती है जब MDDA के मुख्य अभियंता जैसे प्रभावशाली व्यक्ति के खिलाफ इतने स्पष्ट सबूत सामने आने के बावजूद कोई एफआईआर दर्ज नहीं होती।यह आरोप केवल अभियंता पर नहीं, बल्कि पूरे तंत्र पर लगते हैं — ड्राफ्टमैन, लेखपाल, प्राधिकरण के अन्य अधिकारी और स्थानीय प्रशासन सभी इस “संरक्षण चक्र” का हिस्सा प्रतीत होते हैं।
– मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण की भूमिका
जब यह मामला तूल पकड़ने लगा, तब MDDA के उपाध्यक्ष ने तात्कालिक कार्रवाई करते हुए **ग्रुप हाउसिंग परियोजना का नक्शा निरस्त कर दिया।** लेकिन सवाल ये उठता है कि **गलत नक्शा पास करने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई?**ड्राफ्टमैन और लेखपाल जैसे अधिकारी, जिनकी भूमिका नक्शा सत्यापन और भूमि अभिलेखों की जाँच में अहम होती है, अब भी अपने पदों पर बने हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कार्रवाई सिर्फ दस्तावेज़ों तक सीमित रही है, जबकि असली दोषियों को आज़ादी के साथ काम करने दिया जा रहा है।
अब तक क्यों नहीं हुई FIR?
इस प्रश्न का उत्तर साफ है – **राजनीतिक दबाव, प्रशासनिक उदासीनता और आंतरिक मिलीभगत।** जब कोई अधिकारी स्वयं उस योजना का लाभार्थी हो, जिसे वो अनुमोदित कर रहा है, तो हितों का टकराव स्पष्ट है। परंतु जांच की रफ्तार और रिपोर्ट की अदृश्यता यह दर्शाती है कि **कार्रवाई को जानबूझकर रोका गया है।एफआईआर न दर्ज करने का मतलब न केवल कानून का उल्लंघन है, बल्कि यह **एक गहरी संस्थागत समस्या** को भी उजागर करता है।
मीडिया की भूमिका और जनदबाव
इस पूरे मामले को **वॉइस नेशन** जैसे स्थानीय मीडिया ने साहसिकता से उजागर किया। इसके बाद सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर भी जनदबाव बनने लगा, जहां लोग सीधे सवाल करने लगे कि **अगर आम आदमी अतिक्रमण करता है तो तुरन्त बुलडोज़र चलता है, लेकिन अफसरशाही क्यों बख्शी जाती है? मीडिया की इस पारदर्शिता और जनता की जागरूकता से ही यह मामला कोर्ट तक पहुंचा, जिससे उम्मीद है कि अब कार्रवाई होगी।
कानूनी विकल्प और संभावनाएं
अगर राजपुर थाना अब भी एफआईआर दर्ज नहीं करता, तो याचिकाकर्ता या सामाजिक संगठन हाईकोर्ट में अवमानना याचिका दाखिल कर सकते हैं। इसके अलावा, एक स्वतंत्र जांच एजेंसी जैसे CBI या SIT से जांच करवाने की मांग भी हो सकती है। यह भी संभव है कि कोर्ट अगली सुनवाई में राज्य सरकार से स्पष्टीकरण मांगे कि दोषी अधिकारियों पर विभागीय कार्रवाई क्यों नहीं हुई
यह पूरा प्रकरण एक बार फिर यह दर्शाता है कि **जब तक सिस्टम में पारदर्शिता और जवाबदेही नहीं होगी, ऐसे अतिक्रमण रुकना मुश्किल है।** अब समय आ गया है कि कोर्ट की सख्ती को आधार बनाते हुए प्रशासन एक मिसाल कायम करे – चाहे वह अधिकारी हो, रसूखदार हो या जनप्रतिनिधि, सबके लिए एक समान कानून हो। MDDA जैसी संस्थाओं को **जनहित में निष्पक्ष, पारदर्शी और कानूनी रूप से जवाबदेह बनाना ही एकमात्र समाधान है। “एमडीडीए के रसूखदार मुख्य अभियंता के परिवार पर कब दर्ज होगी FIR” – यह सवाल सिर्फ एक व्यक्ति या संस्था से नहीं जुड़ा है, यह पूरे सिस्टम की **न्यायिक निष्पक्षता, प्रशासनिक ईमानदारी और लोकतांत्रिक पारदर्शिता की परीक्षा** है। अब देखना यह होगा कि कोर्ट के सख्त रुख के बाद क्या पुलिस और प्रशासन अपनी ज़िम्मेदारी निभाएंगे या फिर एक और रसूखदार मामला “फाइलों” में दफ्न कर दिया जाएगा।