देहरादून में विकास प्राधिकरण (MDDA) के हालिया आदेश ने सबको चौंका दिया। बिल्डर फ्लोर पर अचानक लगाम कसने का आदेश जारी किया गया है — अब दो फ्लोर से ज़्यादा के निर्माण पर स्टिल्ट फ्लोर (Stilt Parking) की अनुमति नहीं दी जाएगी। पहली नज़र में यह आदेश शहर की अव्यवस्थित होती रिहायशी कॉलोनियों को नियंत्रित करने की दिशा में एक मजबूत कदम लगता है। लेकिन जब ज़रा पीछे झांक कर देखें, तो तस्वीर कुछ और ही बयां करती है।

जिसने सबसे ज़्यादा अनदेखी की, वही अब नैतिकता का पहरुआ?
MDDA का वही AE, जिसके क्षेत्र में सबसे अधिक बिल्डर फ्लोर खड़े हुए — बिना किसी वैध कार्रवाई के — अब इस आदेश के पीछे का ‘मास्टरमाइंड’ बताया जा रहा है। हैरानी की बात यह है कि इस AE ने आज तक एक भी अवैध बिल्डर फ्लोर पर कार्यवाही नहीं की। सवाल ये उठता है:
क्या तब तक सब कुछ ठीक था, जब तक जेबें गरम हो रही थीं?
बिल्डरों से बात करें तो खुलकर स्वीकार करते हैं कि हर फ्लोर के हिसाब से ‘रेट’ तय थे। लेकिन जैसे ही लेन-देन में खटपट शुरू हुई, अचानक अफसर साहब को नियमों की याद आ गई।
‘सेटबैक’ का नाम सुना है? MDDA ने नहीं!
राजपुर रोड पर पूर्व मंत्री के दामाद की बहु-मंजिला इमारत हो या अन्य निर्माण — एक फीसदी भी सेटबैक न छोड़ने के बावजूद, AE महोदय ने आंखें मूंदे रखीं।
क्यों? क्या प्राधिकरण किसी दबाव में था?
या पैसा और पहचान, नियमों पर भारी पड़ गया?
जमा कुर्सी, खत्म डेपुटेशन — पर MDDA का ‘आशीर्वाद’ बरकरार
जानकारी के अनुसार, उक्त AE की डेपुटेशन अवधि आठ महीने पहले ही खत्म हो चुकी है। इसके बावजूद वे प्राधिकरण की कुर्सी पर बने हुए हैं। किसकी शह पर? कौन जिम्मेदार है इस नियमविरोधी नियुक्ति का? क्या MDDA अब भी एक “पर्सनल फेवर क्लब” बन गया है?
जिम्मेदार कौन? और कार्रवाई कब?
क्या MDDA के पास जवाब है:
कितने बिल्डर फ्लोर सील किए गए अब तक?
क्या कभी किसी बड़े बिल्डर पर भी हाथ डाला गया?
क्या ये आदेश सिर्फ छोटे बिल्डरों को दबाने की चाल है?
कागज़ों में आदेश कड़े हैं, जमीनी हकीकत में पक्षपात साफ़ है। ऐसे में सवाल उठता है — क्या वाकई शहर के विकास की चिंता है, या अपनी ‘इमेज’ चमकाने की कोशिश चल रही है?
